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भारतीय शिक्षा का इतिहास | History of indian education

औपनिवेशिक भारत में शिक्षा का विकास
Development of education in colonial India



भारतीय शिक्षा का इतिहास

अंग्रेज़ों से पूर्व भारतीय शिक्षा:
Indian education before the British:

1830 के दशक में तत्कालीन भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने बिहार तथा बंगाल की स्कूली शिक्षा व्यवस्था के अध्ययन हेतु एक ईसाई प्रचारक और शिक्षाविद् विलियम एडम (William Adam) को नियुक्त किया।

एडम ने तीन रिपोर्टें प्रस्तुत कीं जिसके निष्कर्ष निम्नलिखित थे:

ब्रिटिश अधीनता से पूर्व भारत की शिक्षा व्यवस्था लंबे समय से गुरु-शिष्य परंपरा पर आधारित थी।

आधुनिक विद्यालयों के विपरीत उस समय छोटी-छोटी पाठशालाएँ होती थीं।

जहाँ स्थानीय शिक्षक या गुरु द्वारा बच्चों को संस्कृत, व्याकरण, प्रायोगिक गणित, महाजनी खाता आदि के बारे में पढ़ाया जाता था।

ये पाठशालाएँ प्रायः किसी मंदिर, दुकान, किसी शिक्षक के घर, किसी वृक्ष के नीचे या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर चलती थीं।

पाठशालाओं में कुल 10-20 विद्यार्थी ही होते थे

फसलों की कटाई के मौसम में पाठशालाएँ बंद रहती थीं ताकि बच्चे अपने घर के कामों में मदद कर सकें।

शिक्षक या गुरु की फीस निर्धारित नहीं थी। गरीब बच्चों से कम तथा आर्थिक रूप से सक्षम छात्रों से अधिक फीस ली जाती थी।

उस समय अलग-अलग कक्षाएँ नहीं चलती थीं बल्कि सभी छात्र एक ही जगह साथ-साथ बैठते थे और विभिन्न स्तर के विद्यार्थियों को शिक्षक अलग-अलग पढ़ाते थे।


प्राच्यवादी तथा पाश्चात्यवादी विवाद
Orientalist and Westernist disputes

ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में शिक्षा के प्रसार हेतु प्रारंभ में कोई विशेष रुचि नहीं दिखाई लेकिन भारत में बढ़ते साम्राज्य तथा राजनीतिक शक्ति के कारण उसे एक ऐसे वर्ग की आवश्यकता हुई जो कि प्रशासन और व्यापार के कार्यों में उसकी सहायता कर सके।

इसके लिये वर्ष 1813 में ब्रिटेन की संसद द्वारा पारित चार्टर अधिनियम में भारत में शिक्षा के विकास हेतु प्रतिवर्ष 1 लाख रुपए के अनुदान का प्रावधान किया गया।

चार्टर अधिनियम, 1813 (Charter Act, 1813)

चार्टर अधिनियम, 1813 (Charter Act, 1813) द्वारा निर्दिष्ट शिक्षा हेतु अनुदान के विषय पर कंपनी प्रशासन में मतभेद उत्पन्न हुआ कि भारत में शिक्षा का प्रारूप तथा माध्यम कैसा हो?
इस मतभेद में दो पक्ष थे।

एक पक्ष प्राच्यवादियों (Orientalist) का था, जो मानते थे कि भारत में पारंपरिक शिक्षा व ज्ञान को प्रोत्साहन देना चाहिये एवं शिक्षा का माध्यम स्थानीय भाषाएँ होनी चाहिये।

दूसरा पक्ष पाश्चात्यवादियों (Anglicist) का था, जो मानता था कि शिक्षा व्यावहारिक तथा उपयोगी होनी चाहिये और शिक्षा का माध्यम इंग्लिश होना चाहिये।

प्राच्यवादियों में विलियम जोन्स, जेम्स प्रिंसेप, चार्ल्स विल्किंस, एचएच विल्सन आदि शामिल थे।

जबकि पाश्चात्यवादी शिक्षा के समर्थन में टीबी मैकाले, जेम्स मिल, चार्ल्स ग्रांट, विलियम विल्बरफोर्स आदि शामिल थे।

जेम्स मिल उपयोगितावादी विचारक था तथा उसका मानना था कि अंग्रेज़ों को भारतीय जनता को खुश करने या उनकी भावनाओं को ध्यान में रख कर शिक्षा नहीं देनी चाहिये बल्कि शिक्षा के माध्यम से उन्हें उपयोगी तथा व्यावहारिक ज्ञान देना चाहिये , जिसमें पश्चिमी विज्ञान, तकनीकी तथा व्यावसायिक शिक्षा शामिल हो।

टी.बी मैकाले प्राच्य शिक्षा का घोर विरोधी था

प्राच्य शिक्षा के बारे में मैकाले का कथन था कि “एक अच्छे यूरोपीय पुस्तकालय का केवल एक शेल्फ ही भारत और अरब के समूचे साहित्य के बराबर है।”

इस विवाद के बावजूद पाश्चात्यवादी शिक्षा के समर्थकों की बात भारत परिषद ने स्वीकार की तथा अंग्रेज़ी शिक्षा अधिनियम, 1835 (English Education Act, 1835) पारित किया।

इसके बाद भारत में अंग्रेज़ी को शिक्षा के माध्यम हेतु औपचारिक तौर पर स्वीकार किया गया।

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