SAMAJIK ANDOLAN
धार्मिक और सामाजिक आंदोलन :
DHARMIK AUR SAMAJIK ANDOLAN
Religious and Social Movement
SAMAJIK ANDOLAN
धार्मिक और सामाजिक आंदोलन : DHARMIK AUR SAMAJIK ANDOLAN
Religious and Social Movements
देव समाज ( DEV SAMAJ )
1887 ईस्वी में शिव नारायण अग्निहोत्री द्वारा लाहौर में देव समाज की स्थापना की गई।
शिवना अग्निहोत्री स्वयं ब्रह्म समाज के अनुयायी थे, जिन्होंने शराब और मांस सेवन की आलोचना की थी।
भारत सेवक संघ (दि सर्वेंट ऑफ़ इंडिया सोसाइटी)-
The Servant of India Society
महात्मा गांधी जी के राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले के द्वारा बम्बई में वर्ष 1905 में भारत सेवक संघ की स्थापना की गई।
इस संगठन में ऐसे भारतीय शामिल थे,
जो किसी ना किसी रूप से अपने देश की सेवा के लिए समर्पित थे।
राधा स्वामी आंदोलन (RADHA SWAMI ANDOLAN)
वर्ष 1861 में शिवदयाल खत्री अथवा तुलसीराम के द्वारा आगरा में राधास्वामी आंदोलन का गठन हुआ।
शिवदयाल खत्री (तुलसीराम) ही स्वामी जी महाराज के नाम से प्रसिद्ध थे, मूल रूप से ये आगरा के एक साहूकार थे।
धर्म सभा ( DHARM SABHA )
1829 ईस्वी में राजा राममोहन राय के प्रयासों से तत्कालीन गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बेंटिक के द्वारा सती प्रथा को बंद कर दिया गया।
इसी समय 1830 ईस्वी में राजा राधाकांत देव द्वारा धर्म सभा की स्थापना की गई,
इस सभा का उद्देश्य सती प्रथा का समर्थन करना था।
भील सेवा मंडल (BHEEL SEVA MANDAL)
वर्ष 1922 को बम्बई में अमृतलाल विट्ठल दास ठक्कर द्वारा भील सेवा मंडल का गठन किया गया,
जिसका उद्देश्य आदिवासियों का पुनरुत्थान करना था।
अमृतलाल विट्ठलदास ठक्कर को ही ठक्करबापा के नाम से जाना जाता है,
इन्होंने ही आदिवासियों को जनजाति नाम भी दिया था।
सामाजिक सेवा संघ (social service league) 1921
नारायण मल्हार जोशी द्वारा बम्बई में सामाजिक सेवा संघ की स्थापना की गई इस संघ का उद्देश्य लोगों के लिए जीविका की एक अच्छी स्थिति उपलब्ध कराना था।
शारदा सदन (SHARDA SADAN )-1889
इसकी स्थापना पंडिता रमाबाई द्वारा बंबई में की गई थी।
शारदा सदन एक विधवा आश्रम था जहां विधवाओं को शरण दी जाती थी तथा उन्हें जीवन में आगे बढ़ने के लिए प्रेरित किया जाता था।
वर्ष 1890 ईस्वी में इस आश्रम को बंबई से पूना में स्थानांतरित कर दिया गया।
एम जी रानाडे और आर जी भंडारकर भी शारदा सदन से जुड़े थे,
कुछ समय बाद इस आश्रम में ईसाई धर्म का प्रचार प्रसार होने लगा जिस कारण बाल गंगाधर तिलक ने एम जी रानाडे और आर जी भंडारकर की कड़ी आलोचना की तथा इन दोनों को त्यागपत्र देना
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